Saturday, September 30, 2006

एक साल बाद


ना जाने क्यों आज एक साल के बाद,
याद आ रहा है मुझे इतनी शिद्दत के साथ, 
वो स्कूल जहां गुजारे मैंने इतने दिन ।

याद आ रहा है बहुत सा सामान, 
जो छोड़ आया था मैं वहां, 
जिनमें शामिल था वो तीसरा बेंच ।

एक स्टूल कंप्यूटर प्रिंटर के आगे रखा, 
बरामदे की ओर खुलने वाली एक खिड़की,
जिस-से आने वाले हर एक विद्यार्थी का,
जायजा लेती थी मेरी नजर ।

कोई दिलकश सा नाम जो हम
ज़ीने में लगे आईने पर भाप जमा लिखते थे ।
मुड़े हुए गीले फिल्टर पेपर जो 
मैंने डस्टबिन के पास फेंक दिए थे ।

ओस की वो बूंदें जो हर सुबह
हरी हरी घास पर सजी पाती थीं ।

चाक तो चूरा जो शामपट्ट के नीचे
इकट्ठा हो जाता था जब मैडम लिखती थी ।

कुछ रंगीन चॉक टुकड़े जो हम
जान बूझकर नीचे गिरा दिया करते थे ।

पुस्तकालय में अंग्रेजी की अलमारी में
रखी वो धूल भरी किताब,
जिस पर लिखा था 'रोमियो एंड जूलियट' ।

वो रंग बिरंगे स्कार्फ 
जो मैडम बांधकर आती थी ।

सर्दियों में बालों पर जमी ओस, जो
पानी बन धीरे धीरे जब टपकता था तो
कुछ गोरे चेहरों के होंठ गुलाबी हो जाते थे ।

अब तक सर की वो एनक, जो वो
हर व्याख्यान के बाद उतारते थे, 
अपनी सी लगती थी ।

स्कूल के किसी कोने से उठता उस आग का धुंआ, जो
ठिठुरती ठंड से बचाने के लिए चपरासी जलाते थे ।

वो कागज के रंगीन टुकड़े, 
जिन से सजाई थी हमने अपनी क्लास ।

और सबसे बढ़कर उस जादुई घंटी की आवाज़, 
जो यूं तो रोज़ खुश कर देती थी, 
पर आखरी बार
न जाने क्यों
भरी धूप में भी आँखें नम छोड़ गयी थी ।

हाँ, ये सब सामान मेरा है ।

सारा नहीं तो थोड़ा थोड़ा,
बस एक एक कतरा सबका
बटोर कर ला दो मुझे ।

आज मुझे ये सब याद आ रहा है,
एक साल बाद,
बड़ी शिद्दत के साथ ।

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