ना जाने क्यों आज एक साल के बाद,
याद आ रहा है मुझे इतनी शिद्दत के साथ,
वो स्कूल जहां गुजारे मैंने इतने दिन ।
याद आ रहा है बहुत सा सामान,
जो छोड़ आया था मैं वहां,
जिनमें शामिल था वो तीसरा बेंच ।
एक स्टूल कंप्यूटर प्रिंटर के आगे रखा,
बरामदे की ओर खुलने वाली एक खिड़की,
जिस-से आने वाले हर एक विद्यार्थी का,
जायजा लेती थी मेरी नजर ।
कोई दिलकश सा नाम जो हम
ज़ीने में लगे आईने पर भाप जमा लिखते थे ।
मुड़े हुए गीले फिल्टर पेपर जो
मैंने डस्टबिन के पास फेंक दिए थे ।
ओस की वो बूंदें जो हर सुबह
हरी हरी घास पर सजी पाती थीं ।
चाक तो चूरा जो शामपट्ट के नीचे
इकट्ठा हो जाता था जब मैडम लिखती थी ।
कुछ रंगीन चॉक टुकड़े जो हम
जान बूझकर नीचे गिरा दिया करते थे ।
पुस्तकालय में अंग्रेजी की अलमारी में
रखी वो धूल भरी किताब,
जिस पर लिखा था 'रोमियो एंड जूलियट' ।
वो रंग बिरंगे स्कार्फ
जो मैडम बांधकर आती थी ।
सर्दियों में बालों पर जमी ओस, जो
पानी बन धीरे धीरे जब टपकता था तो
कुछ गोरे चेहरों के होंठ गुलाबी हो जाते थे ।
अब तक सर की वो एनक, जो वो
हर व्याख्यान के बाद उतारते थे,
अपनी सी लगती थी ।
स्कूल के किसी कोने से उठता उस आग का धुंआ, जो
ठिठुरती ठंड से बचाने के लिए चपरासी जलाते थे ।
वो कागज के रंगीन टुकड़े,
जिन से सजाई थी हमने अपनी क्लास ।
और सबसे बढ़कर उस जादुई घंटी की आवाज़,
जो यूं तो रोज़ खुश कर देती थी,
पर आखरी बार
न जाने क्यों
भरी धूप में भी आँखें नम छोड़ गयी थी ।
हाँ, ये सब सामान मेरा है ।
सारा नहीं तो थोड़ा थोड़ा,
बस एक एक कतरा सबका
बटोर कर ला दो मुझे ।
आज मुझे ये सब याद आ रहा है,
एक साल बाद,
बड़ी शिद्दत के साथ ।